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अर्थ कर रहे हैं, फिर प्राणों को अपूर्व बल प्राप्त गया। फिर चढ़ने लगा। तीन चौथाई पहाड़ चढ़ गया, तब सामने पहाड़ का एक हिस्सा लटका हुआ देख पड़ा। चढ़ने का उपाय न था । बड़ा दुःख हुआ ! उसी समय विजली कौंधी। प्रकाश में कुछ पग दाहने एक पेड़ देख पड़ा, जो उस पहाड़ के लदकते हिस्से की माल से शाकर उससे मिला हुआ तने से ही कुछ ऊँचा उठ गया था। राजकुमार उसी पेड़ पर चढ़कर उस लटकते हिले पर गया । अब बूंदों की वर्षा होने लगी। पर रामकुमार चढ़ता ही गया । जय कुछ और ऊपर गया, तो वैसा ही एक दूसरा, उससे कुछ और ऊँचा लटकता हिस्सा देख पड़ा। ठीक इसके बाद कामद-गिरि की चढ़ाई समाप्त थी। पर चढ़ने का कोई उपाय न था ! बिजली चमकी, देखा, दूर तक पहाड़ वैसा ही खड़ा चढ़ा था, ऊपर से लटका हुआ। अब पानी भी धारे-धीरे बरसने लगा। लाचार हा उसी लटके पहाड़ के नीचे बैठकर रोने लगा। "कुछ देर बाद पानी बंद हो गया। उसे भय हुआ कि दिन को लोग देखेंगे, तो पकड़ कर मारेंगे । रात दो-डाई घटे रह गई थी, तब तक पहाड़ से उतर जाने का निश्चय कर उतरने लगा। उसी तरह पहले पेड़ से होकर उत्तरा। फिर धीरे-धीरे घंटे-भर बाद नीचे आया । कपड़े जो उतार कर कामद-गिरि पर चढ़ा दिए थे, फिर से पहन लेने की इच्छा हुई। जहाँ उतारे थे, वहाँ देखने लगा, वहाँ कोई कपड़ा न मिला । पवनदेव न-जाने कहाँ उड़ा ले गए थे। अब बड़ी लज्जा लगी। अँधेरा अब तक है, !