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अर्थ दिन को नहीं चढ़ने देते, मैं रात को चढ़ गा ! फिर वह परिक्रमा करता गया। पहले भूध और प्यास से सूख रहा था, अब इस निश्चय से, राम-दर्शन पर भर विश्वास दृढ़ हुआ, चेहरा गुलाब के फूल-जैसा खुल गया। प्राकृतिक शोभा जैसे सूचित कर रही हो, राम हैं, वह मिलेंगे। खशी से परिक्रमा करता हुश्रा मंसूबे बांधत्ता रहा। "परिक्रमा समाप्त कर एक मंदिर में शिव-नाम जपत्ता हुआ उस्की कृपा की भिक्षा, जिससे रामजी के दर्शन मिल जायें, और अपने समय की प्रतीक्षा करता रहा। सब दिनों की अस- फलता भाज आशा में पूरी सफलता बनकर उसे अपूर्व आनंद में लहरा रही थी! रात दस बजे तक वह उसी मंदिर में बैठा रहा । जब देखा कि सब सुनसान हो गया है, तब बाहर निकला। घोर अंधकार छाया हुआ था । आकाश में सावन की घटा छाई हुई थी, हवा चल रही थी, बादल गरज रहे थे। परिक्रमा का अंत करने से कुछ पहले एक स्थाल उसे ऐसा मिला, जहाँ मंदिर कम हैं, रास्ता रोकनेशले लोगों का भय नहीं । वहीं से पहाड़ चढ़ने का उसने निश्चय किया था, उसी ओर, उल्टी परिक्रमा करता हुआ चला { घोर रात्रि-काल ! मंदिरों के द्वार बंद हो चुके थे। शायद लोग भी सो चुके हों । तीव्र आकांक्षा से बढ़ता हुआ अपने स्थान पर पहुँचा। देखा, कामद-गिरि का बड़ा भयानक रूर हो रहा था। पर रामकुमार के प्राणों को चोट पहुँची थी, राम को वह प्यार करता था, उन्हीं राम ने संसार