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१६ लिली विना गहनों के मायके जाने में लाज न थी, जहाँ इसके बाल- केलियों से उज्ज्वल, निरामरण रूपवाले दिन हीते थे । वह केवल पति के सोच में थी। पर रामकुमार, कुछ समय, हीरे की खान हुँढने के लिये निकले हुए योरपीयों की तरह, अर्थ के अन्वेषण में अकेला चलना चाहता था। विद्या को घर में लिस्संग रहने के कारण कष्ट होगा, सोचकर, मौका देख, एकांत मैं उसने समझाया कि जब तक किसी जगह वह पैर न जमा सके, तब तक विद्या का मायके ही रहना अच्छा होगा, और उसके बिदा होने के बाद वह भी अर्थ की तलाश में निकलेगा। "विद्या पति की पद-धूलि लेकर भाई के साथ चली गई। रामकुमार भी अर्थ की खोज में बाहर निकला। लखनऊ, कानपुर और प्रयाग में कई जगह गया, पर किसी ने भी न पूछा। वह क्या जाने कि संसार किसे कहते हैं, एक साधारण- सी जगह के लिये कितने असाधारण कार्य करने पड़ते हैं, कितना छल, कितनी खुशामद, कितनी सिफारिश दो रोटियों की नौकरी के लिये आज जरूरी हो रही है ? उसके राम इस संसार के स्वामी हो सकते हैं, पर बर्ताव में इस संसार के स्वामी उसके राम नहीं। सभी जगह उसे अपमान सहकर लौटना पड़ा; सभी ने उसे बेबाक बनाकर छोड़ा। उसके हृदय की कौन जानता था ? पर उसकी मूर्खता नौकरी के लिये बेकायदा आकर गिड़गिड़ाने पर सब पहचान लेते थे। वह कितना पवित्र है, इसकी किसे आवश्यकता है ? उसे संसार का, ऑफिस का