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अर्थ ६३ दिवाला छः ही महीने में निकल गया, क्या बात है बहू ?' 'बात क्या है ? तुम अपना काम करो. कहने के लिये, दुनिया है, किसी की जीभ में ताला पड़ा है ?' भोजन पकाकर, पति को समझाती हुई कि 'तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करो--- फिर हम दोनो एक साथ भीख माँगगे, पर अब में भी तुम्हे कहीं न जाने दूंगा, मेरे चार हजार के गहने हैं, तुम सब बेच डालो। रामकुमार को श्राज कार्यतः पहलेयहल प्रिया के अपार प्रेम का परिचय मिला | उठकर नहाया, भोजन किया, शाम को ३० तोले की जंजीर के बदले दो सौ रुपए लेकर घर लौटा। "हृदय को बड़ी चोट पहुँची। जो राम पृथ्वी के ईश्वर हैं, जो भरत सृष्टि-भर को भोजन देते हैं, उन्होंने स्वयं अपने भक्त की लाज ले ली, अब मैं किस विश्वास पर उन्हें पुकारूँ? वे मेरे किस काम आएँगे ?' सोचते-सोचते मस्तिष्क में गरमी छा गई । प्यार की जगह चोट खाकर मनुष्य मुश्किल से सुधरता है। इसी समय याद आई, 'भगवान् चित्रकूट में हैं । तुलसीदासजी को वहीं उनके दर्शन हुए थे।' काराज़ लेकर उनके नाम चिट्ठी लिखने लगा। लिखा- प्रमो, मुझे तुम्हारा बड़ा भरोसा था। मेरी नाव अब मझधार है। पर तुम्हारी कृपा तो मुझे नहीं नजर आती । अब तुम्हारे सिवा संसार में मेरी मदद करनेवाला कोई नहीं है। मेरे पिता का भी सहाग तुमने छुड़ा दिया। अब तो दया करो।