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लिली

के विचार पैदा हो गए हैं। इसे निस्संकोच चलती-फिरती, उठती-बैठती, हँसती-बोलती देखकर माता हृदय के बोलबाले तार से कुछ और ढीली तथा बेसुरी पड़ गई हैं।

एक दिन संध्या के डूबते सूय के सुनहले प्रकाश में, निरभ्र नील आकाश के नीचे, छत पर, दो कुर्सियाँ डलवा माता और कन्या गंगा का रजत-सौंदर्य एकटक देख रही थी। माता पद्मा की पढ़ाई, कॉलेज की छात्राओं की संख्या, बालिकाओं के होस्टल का प्रबंध आदि बातें पूछती हैं, पद्मा कहती है, हाथ में हाल की निकली स्ट्रैंड मैगज़ीन की एक प्रति। तस्वीरें देखती जाती है। हवा का एक हलका झोंका आया, खुले रेशमी बाल, सिर से साड़ी को उड़ाकर, गुदगुदाकर, चला गया।

"सिर ढक लिया करो, तुम बेहया हुई जाती हो।" माता ने रुखाई से कहा।

पद्मा ने सिर पर साड़ी की ज़रीदार किनारी चढ़ा ली, आँखें नीची कर किताब के पन्ने उलटने लगी।

"पद्मा!" गंभीर होकर माता ने कहा।

"जी!" चलते हुए उपन्यास की एक तस्वीर देखती हुई नम्रता से बोली।

मन से अपराध की छाप मिट गई, माता की बात्सल्य- सरिता में कुछ देर के लिये बाढ़-सी आ गई, उठते उच्छ्वास से बोली--"कानपुर में एक नामी वकील महेशप्रसाद त्रिपाठी हैं।"

"हूँ" एक दूसरी तस्वीर देखती हुई।