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45 लिली छोड़कर अप्रकट तत्त्व को पहुँचे हुए थे ! आँगन के दूसरी ओरवाले छप्पर के नीचे रोगी की सद्यश्च्युत पतझड़ के पत्र- सी जीर्ण शय्या थी। श्यामा और बंकिम अपना उत्तरदायित्व यूरा कर रहे थे। लोगों को आहद नहीं सुनी। जब बंकिम दवा पिला चुका, और साश्चर्य परीक्षक की दृष्टि से देख रहा था कि दवा मुंह से निकली भा रही है, उसी समय पिता की नीति-धर्म से गुरु वज्र-गर्जना सुनी-क्यों चमार, धर्म को धोकर पी गया ?" पिता के हितकर उपदेश से ताड़ित अनेकानेक भावनाओं की तडित् बंकिम की नसों में तेज बह चली। अपनी स्थिति मनुष्यता की क्षिति पर खड़ा होकर अच्छी तरह समझा दे, यह इच्छा बदलती हुई मानसिक दशा को बल पहुँचाकर केवल शक्ति बन गई-वह कुछ कह न सका, जो कुछ कहने को 'चला था, उसी ने रोक दिया। पुत्र को चुपचाप खड़ा हुआ, तब तक भी निकलता न देखकर, रामप्रसादजी विना रोटी के तवे-जैसे, उसी की आग से, तप उठे, और पार्वतीय निझर की तरह प्रखर शब्द-गर्जन- स्वर से उस क्षुद्र उपल-खंड पर टूट पड़े । जब वह अपनी भाष्य और भाषण उभय प्रकार की शक्तियों से पुत्र के विरुद्ध युद्ध कर रहे थे, उसी समय सुधुआ स्वर्ग सिधार गया-श्यामा पिता को हिला-हिलाकर ऊँचे स्वर से रोने लगी। पूरी घृणा से पुत्र को सुनाकर कि उनके घर में श्रव उसके