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श्यामा पं. रामप्रसादजी सूख गए कि यह क्या माजरा है । प्रकाश्य बोले-"हमने तो ऐसी सम्मति उसे नहीं दी, उसके पास रुपए भी नहीं थे।" अब तक सुधुश्रा का घर भी आ गया। भारतीय किसानों के घर में दरवाजे नहीं होते। सिर्फ टट्टर रहता है। रात को भेड़िए से बकरियों को बचाने के लिये एक डंडे से बाँध दिया जावा है। फिर शूद्र के मकान में प्रवेश के लिये आज्ञा-विशेष भावश्यक नहीं । दरवाजा खुला था । सब लोग जूते समेत भीतर फँस गए । साथ-साथ पं० रामप्रसाद भी गए। जब रामप्रसादजी ने बंकिम को देखा, उस समय श्यामा पिता का शीश गोद में लेकर, कुछ उठाए हुए बैठी थी, किम्म पड़ोस के गाँव से दवा ले आया था, झुककर मुँह में डाल रहा था। कुछ मुकी हुई श्यामा करुणा-दृष्टि से पिता को देख रही थी। श्यामा और बंकिम एक ही लक्ष्य पर एकाग्र थे। कभी- कभी श्यामा के बाल, कभी-कभी कपोल और मुख बंकिम के गालों से छू जाता था। सुधुआ के जबड़े जकड़ गए थे, दोनो खोलकर दवा पिलाने के प्रयत्न में थे। वहाँ ब्राह्मण और लोध में सामाजिक जितने स्तरों का भेद है, वह न था । लोग खड़े यही देख रहे थे। लोगों की निगाह में श्यामा और बंकिम के सामीप्य का जो अर्थ था, उसके साथ सुधुआ का सहयोग बिल- कुल न था। वह मर रहा है, लोग यह नहीं देखते थे, बह क्या कर रहा है, इसका दूरान्वय कर रहे थे। प्रकट सत्य को