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लिली को देने लगे। उन्होंने सिकुड़कर मुलायम-मुलायम जवाब दिया कि "देवीदयालजी गाँव के मान्य हैं। इन्हें पहले दीजिए।" पं. रामप्रसादजी ने देवीदयालजी की ओर हाथ बढ़ाया। उन्होंने कहा--"अभी स्नान नहीं हुआ। आप मालिक को ही दीजिए।" रामप्रसादजी ने फिर मालिक की तरफ हाथ बढ़ाया । उन्होंने पान ले तो लिए, पर सामने के एक काराज के टुकड़े में लपेट- कर रख दिए। गाँववालों के ऐसे स्वभाव से प० रामप्रसादजी को काफी परिचय था। वह कई बार गाँव को ब्रह्मभोजवाली गुनहगारी अकारण दे चुके थे । स्वयं अच्छे ब्राह्मण नथे । प्रायः लोग पैरों पड़ाते थे। इसलिये मन-ही-मन घबराए । सोचा, शायद वंकिम की सिगरेटवाली बात खुल गई। इधर एक आदमी को जमींदार साहब ने एकांत में बुलाकर सुधुआ का मकान देख आने के लिये चुपचाप भेज दिया। वहाँ बाँके है या नहीं, वह देखकर बतलाए । फिर बैठकर फालतू बातचीत करने लगे। लौटकर आदमी ने संवाद दिया कि बाँके वहीं पर है। तब, अपने लोगों के साथ रामप्रसादजी को एक आवश्यक दृश्य दिखलाने के उत्साह से लेकर, जमींदार साहब सुधुआ के मकान, की तरफ चले । रास्ते में कहा-"आज सुधुआ की तरफ से साढ़े सात रुपए लगान के बाँके ने दिए--गाँव में लेन-देन करने के इरादे पर शायद आपने बाँके को भेजा है?"