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लिली "क्यों देवीदयाल, तुम लोग तो ब्राह्मणों के सिरमौर हो गाँव में, कुछ समझ में आती है. क्या बात है ?" "बात ऊपर रक्खी है। महा गँवार भी समझ जाय।" पं० देवीदयाल विशेष रूप अंतर्मुख हो गए। "तो समझ ही से सब हो जायगा ? आज समझ गए, कल पानी पिओगे, परसों एक साथ पूड़ी खाओगे, तो ठीक होगा " निरीक्षक की दृष्टि से देखकर दयाराम ने पूछा। देवीदयाल पहले तीन बिस्वेवाले कनवजिए थे, अब तेरह विस्वेवाले बनकर गाँव के ब्राह्मणों में सिरमौर हैं। कहा- "पहले तो नीचे-नीचे से चलना चाहिए, फिर ऊपर आप बँध जायगा। इन लोधों से पूछिए, हुक के लिये क्या कहते हैं- देंगे सुधुआ को "क्यों रे, तुम लोग क्या कहते हो ? बात कुछ आती है समझ में ?" अपनाते हुए दयाराम ने पूछा। "अब भी कुछ बाकी समझने को रह गया है मालिक ? कल से हुक्का-पानी कोई देगा, तो आप भुगतेगा।" लखुश्रा ने पूरे आत्मसंप्रदान के स्वर से कहा। फिर गाँव के झीगुर, बुलाकी, नथुनी आदि लोधों से अपने-अपने टोले में मना कर देने को कह दिया । सब लोध सञ्चे डपोरशंख की तरह मुख बाए, समझकर, सिर हिलाकर राजी हो गए। देवीदयाल ने कहा- "इन सूदों का कौन भरोसा, कहो चुल्लू-भर में लुटिया डुबो दें।"