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पद्मा और लिली पद्मा के चंद्र-मुख पर पाडश कला की शुभ्र चंद्रिका अम्लान खिल रही है। एकांत कुज की कला-सी प्रणय के वासंती मलय- स्पर्श से हिल उठती, विकास के लिये व्याकुल हो रही है। पद्मा की प्रतिमा की प्रशंसा सुनकर उसके पिता श्रॉनरेरी मैजिस्ट्रेट पंडित रामेश्वरजी शुक्ल उसके उज्ज्वल भविष्य पर अनेक प्रकार की कल्पनाएँ किया करते हैं। योग्य वर के अभाव से उसका विवाह अब तक रोक रक्खा है। मैट्रिक परीक्षा में पद्मा का सूबे में पहला स्थान पाया था। उसे वृत्ति मिली थी। पत्नी को योग्य वर न मिलने के कारण विवाह रुका हुआ है, शुक्ल जी समझा देते हैं। लाल-भर से कन्या को देखकर माता भविष्य-शंका से काँप उठती हैं। पद्मा काशी-विश्वविद्यालय के कला-विभाग में दूसरे साल की छात्रा है। गर्मियों की छुट्टी है, इलाहाबाद घर आई हुई है। अब के पद्मा का उभार, उसका रूप-रंग, उसकी चितवन- चलन-कौशल-वार्तालाप पहले से सभी बदल गए हैं। उसके हृदय में अपनी कल्पना से कोमल सौंदर्य की भावना, मस्तिष्क में लोकाचार से स्वतंत्र अपने उच्छं खल भानुकूल्य