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६८ लिली अच्छे महाजन थे, उनका नाम उसने गाँव में सुना था कि मालदार आदमी हैं। सीधे उन्हीं के यहाँ गया। उन्होंने बड़ी देख-भाल के बाद कहा-"आप हमारे मित्र पं० रामप्रसादजी के लड़के हैं, आपको जरूरत पड़ गई है, इसलिये हम तीस रुपए आपको देते हैं, यों हमारी निगाह में इसमें दस रुपए से जयादा का सोना नहीं, और नग के लिये चार-पाँच जोड़ लेते हैं।" नग के हीरे से एक शीशे को खरोंचकर, हीरे की पूरी परीक्षा कर उन्होंने कहा । वकिम को लगा तो बहुत बुरा, पर उयाय न था । वह उस अँगूठी की कीमत से सुधुआ का दारिद्रय भी दूर कर देने का हौलला लेकर गया था ! सोचा था, बेचकर, लगान चुकाकर, गाँव से भगने का सिर्फ रास्ता- खर्च लेगा, बाकी सब सुधुश्रा को देकर गाँव के कसाई जमींदार को समझा दिया जायगा कि गरीब किसानों को किस तरह प्यार करना धनी कहलानेवालों का धर्म होता है। पर आशा की वहाँ जड़ ही कट गई। अंगूठी रेहन कर, सिर्फ तीस रुपए लेकर वह तेज कदम सीधे डेरे को गया ! तब तक वहाँ सुधुपा को सब दशा हो चुकी थी। बेंत की मार से उसकी पीठ फट चुकी थी । नीम के पेड़ के नीचे बेहोश मुंह के बल पड़ा था। मुश्के बँधी थी। सामने ग़लीचा-चिछे तख्त पर जमीदार दयाराम दोहरे के बाद तंबाकू खाने का उपक्रस कर रहे थे। गाँव के भले आदमी कहलानेवाले प्रायः सभी लोग चारपाइयों पर बैठे बलि के