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श्यामा ६७ जाकर देना कहाँ तक ठीक है, उसने कभी नहीं सोचा। उसे इस तरह ढोकर आम दते हुए देखकर लोग क्या सोचेंगे, उसे अनुभव न था। जब द्वार पर आम ले जाकर पहुंचा, तो देखता है जमींदार के दो सिपाही दोनो तरफ से सुधुश्रा के कान पकड़े हुए डेरे की ओर लिए जा रहे हैं, श्यामा सजल आँखों से एकटक पिता को देख रही है। आम क्या करे, बंकिम कुछ सोच न सका ! जैसा पहले सोच रखा था, उसी के अनुसार, जैसे नियंत्रित यंत्र हो, श्यामा के सामने गाँठ खोलकर कुर दिया। इस समय एक सिपाही ने फिरकर देखा । एक सहृदय मनुष्य को देख दुखी श्यामा ने कहा- मेरे बायू को पकड़े ले जा रहे हैं, मारेंगे, तुम बचा लो !' सुधुआ की वैसी दशा देखकर सिपाहियों पर बंकिम को गुस्सा आ गया था । कड़ेपन से पूछा- क्यों मारेंगे ?" 'साढ़े सात रुपए लगान के बाकी हैं। कहकर आँचल से श्यामा ने आँसू पोंछ लिए। बंकिम झपटता हुआ चला गया। बंकिम के पास रुपए न थे । हाथ में एक अँगूठी सोने की थी। उस पर कुछ कीमती एक नग था। पिता से उसने मुना था, अंगूठी दो सौ रूपए की है। भैयाचार के घर रुपए देने के सिवा पाने की आशान थी। निकट दसरे गाँव में एक ।