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श्यामा ६३ पिता कौन है, उसका घर कौन-सा हो सकता है, जो कई घर गली से होकर निकलते हुए पड़ते हैं, उनमें यह कुछ पंकिम की समझ में न आया। जो कुछ वह समझ सका, वह बालिका की ही खुली बात का मर्म, उसका निर्भय व्यवहार, उसका अनुपम स्वास्थ्य था। शहर में अनेक पढ़ी-लिखी, विचारों में बढ़ी हुई बालिकाएँ उसने देखी थीं। पर इतना आकर्षण उसे उनमें नहीं मिला। इसके चपल लावण्य में वह न समझ सका कि लुभानेवाला, मन को बलात् वशीभूत कर लेनेवाला कौन- सा जादू था । बैठा एकटक उसे देखने लगा । बालिका घूम- धूमकर अच्छे-अच्छे पेड़ों के श्राम उठाती रही, गति में वह बिलकुल नहीं भटकती, जैसे अच्छे आमवाले पेड़ पहले से पहचानती हो। देखते हुए बंकिम को स्वभावतः उसके पिता को जानने के बहाने बातचीत करने का कौतूहल हुआ। वह उठकर उसकी ओर चला । बालिका का आँचल आमों से भर चुका था। "तुम्हारे बाप का क्या नाम है ?" पास जाकर अज्ञ की तरह तबज्जुब से पूछा। वेवक समझकर वह फिर मुस्किराई । "क्यों ?" खिलकर बोली- मेरे बाप का नाम सुधुआ है।" कहकर चलने को हुई, लो बंकिम ने सहृदय अज्ञ' की तरह फिर पूछा-"तुम्हारा नाम क्या है ?" हँसकर, आप ही अपने में हवा की तरह लिपटकर बालिका बोली- मैं अपना नाम नहीं कहती।" द्रत -