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श्यामा - फरल होने से सुखी हैं। सभी के मुरझे कपोलों पर हँसी खेलती है। दो-एक दौंगरे गिर चुके हैं। हल चल रहे हैं। कहीं-कहीं जुवार, अरहर, तिली, बाजरे श्रादि बोए जा चुके हैं, वहीं बोए जा रहे हैं। छोटे-छोटे कपास के पोदे किसी-किसी खेत में उग रहे हैं। ईख लहरा रही है-उठाई भेड़ें बारिश से कहीं-कहीं छट गई हैं । देहात बरसात के आगम से प्राणों में सुख-स्पंद पाकर प्रसन्न है। बागों में हरी-हरी घास के मनमली गलीचों पर गाँव के गरीब बच्चे छुई-छुअल, गुलहड़, गिली-डंडा खेलते, अखाड़े गोड़कर कूदते, कुश्ती लड़ते हुए अपने-अपने नामों की रखवाली कर रहे हैं। सुबह से एक पहर दिन तक गाँव के प्रायः सभी बाल-वृद्ध-युवक, किसानों की बियाँ, आम्म लेने, पेड़ हिलाने के लिये बागों में ही एकत्र चहल-पहल करते हुए मिलते । , इन्हीं के बीच, अपने बारा में, आज बंकिम भी बैठा हुआ है। पिता के शासन से घबराकर, अपने भविष्य-पट पर, अपटु चित्रकार की तरह, पूर्णच्छवि को खींचने को काँपती, परामुख तूलिका मानसिक शक्ति से फेरता जा रहा है। उसे इस काम में बड़ी देर हो गई, पर कोई पूरी तस्वीर उसके भविध्य-साफल्य-सी सामने न आई । जैसे तट-ज्ञान से शून्य, बीच समुद्र में पड़ा हुआ युवक, दिग्यंत्र के विना नाव को इतस्ततः खेता रहता है, इस प्रकार केवल काल्पनिक श्रम वह कर रहा है। उसके घर के लोग बारा से आम बीनकर घर चले गए, धीरे-धीरे और-और लोग