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६० लिली 1 दिया था। यदि उच्च कुल होता, तो अब तक बंकिम भी एक बच्चे का बाप हो चुका होता। बंकिम के आचरणों का पहले पिता को पता न था । जब हुआ, तब बदनामी से डरकर उसे घर भेज दिया। घर में ताला लगा रहता था । बरसात से कुछ पहले जाकर पं० रामप्रसादजी मरम्मत करवा आते थे। बराल ही एक दूर के भैयाचार रहते हैं । बंकिम को रोटी खिला दिया करते हैं। पं. रामप्रसादजी का एक बाग गाँव में है, कभी-कभी उसका चारा इन्हें मिल जाता है। हिसाब से फायदा रहता है। श्राम पकने लगे हैं। शीघ्र पं० रामप्रसादजी भी श्राम खाने के लिये आनेवाले हैं। गाँव की हँसती हुई बाहरी प्रकृति से तो बंकिम को बड़ा प्रेम है, पर रूढ़ियों पर चलती हुई लोगों की भीतरी प्रकृति से तप घृणा । वहाँ का जीवन जैसे मशीन के चाकों की तरह दूसरे ताप से चल रहा हो, स्वयं लौह-खंड की तरह निर्जीव, निष्पंद । इसलिये वहाँ उसका हृदय नहीं मिलता, सभी के लिये हृदय से वह विदेशी बन गया है। (२) आषाढ़ का महीना, एक सप्ताह बीत चुका है । बादलों के टुकड़े आकाश में क्रीड़ा करते हुए इधर से उधर दौड़ रहे हैं। पलकों को हलकी कर, कभी पूरब से पश्चिम, कभी पश्चिम से पूरब को, ठंडी-ठंडी हवा बह रही है। किसान आमों की अच्छी