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महत्त्व-पूर्ण अन्वेषण उन्होंने रामायण से किए हैं। वे भक्तगरण व्यर्थ के लिये रामायण न सुनते थे। वे पाप करनेवाले थे, तरने की आशा रखते थे। वे सब सरकारी नौकर थे, तनख्वाह सौ से सिर्फ तीन-चार सौ तक पानेवाले; पर रिश्वत से, धर्म की श्राम सड़क से उतरकर, अदालत या अपने ऑफिस की गली और कूचे में, महीने में हजारों के बारे-न्यारे कर देते थे । अधिकांश ऐसे थे, जो पाप पूरा कर चुके थे, अब, पेंशन लेकर, प्रायश्चित्त कर रहे थे । उन्हीं में से किन्हीं- किन्हीं के सुपुत्र वलायत भी गए थे; पर चूँकि वलायत न जाने पर ही पिता ने पापों के हिसाबवाला काफी मोटा खाता तैयार कर लिया था, इसलिये पुत्र के वर्तमान और भविष्य पापों के निश्चय पर उन्हें रत्ती भर भी शंका न होती थी, पुनश्च उन्होंने किसी निष्काम साधना के लिये पुत्र को वलायत तो भेजान था। अतः, पंडितजी को कसौटी पर खरा पाकर, नाराज होने के बदले सभय प्रसन्न होते थे। उधर ऐसी व्याख्या करनेवाले पं० रामप्रसादजी, इधर, पुत्र को, बड़ा होने पर, अँगरेजी स्कूल पढ़ने के लिये भेजने लगे। बंकिम ने भी दसवें तक पहुँचकर, नान के अनुसार, वाम-मार्ग ग्रहण किया। अर्थात् सिगरेट से शुरू कर अंडे- कबाब के प्रवेशिका-द्वार पर पैर रक्खा । उधर केल हुश्रा, इधर पास । माता एक साल पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थी। एक बहन थी सरला, पिता ने नवें साल उसे भी ससुराल भेज