यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

श्यामा पंडित रामप्रसादजी पहलेपहल सरकारी अँगरेजी स्कूल में हिंदी के शिक्षक थे, अब स्थानीय सरकारी कर्मचारी भक्तों के, यहाँ रामायण पढ़ते हैं । थोड़ी वैद्यक भी इन्हीं की सिका- रिश से जमींदार और तभल्लुक्केदारों में चला ली है। जब इस तरह आमदनी ज्यादा हो चली, सम्मान बढ़ गया, और अवकाश उठती धूप से पेड़ की छाँह की तरह घटने लगा, तब एक दिन शिक्षकवाले सापेक्ष पद के डंठल को पके फल की तरह परित्याग कर दिया । जिन दिनों स्कूल में पढ़ाते थे, बँगला-उपन्यासों के अनुवाद हिंदी की पड़ती जमीन पर, ढाक के झाड़ों की तरह, अविश्राम उग-उगकर छा रहे थे। पति-भक्ति से ओत-प्रात इन उपन्यासों के प्रति समुदाय का आज से सौ गुण अधिक समादर था। ऐसे-ऐसे उपन्यास, खास तौर से बंकिमचंद्र के, पं० रामप्रसादजी पुस्तकालयों से इसलिये ले आते थे कि उन्हीं दिनों आठ सौ रुपए में एक अट्ठारह साल की युवती कन्या मोल लेकर उन्होंने नया विवाह किया था-से सुनाते थे।