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नहीं है केवल तपस्या, जिस पर एक हिंदू-महिला विश्वास की डोर पकड़े हुए अपना कुल जीवन निछावर कर देती है। पति के प्रति कमला का काम ही क्रोध माड़ सकता था, मोह में बदलकर जीवन को कलंकित कर सकता था, पर अब उसका निशान तक न रहा । वह अपनी कुल-प्रथा अनुसार एक सौभाग्यवती की तरह व्रत-उपवास आदि तथा देवताओं को प्रणाम कर पति तथा भाई की कल्याण-कामना किया करसी है । श्रृंगार में केवल सेंदुर उसे तृप्त कर रखने के लिये है। एक सीने की मशीन उसने खरीद ली है। रूमाल, कमीज़, कुर्ते आदि सीती, कभी कपड़ों पर छापे लगाकर बेल-बूटे काढ़ती है। इसी तरह उसके अवकाश का समय पार होता है। उसकी मौसी माल बाजार में बेचवा देती । दूकानदार विक जाने पर दाम दे देते हैं। कमला जहाँ रहती है, वहीं एक बगल में आर्य-समाज के मंत्रीजी रहते हैं, और एक तरफ 'महिला'-पत्रिका की संपा- दिका एक रोज मंत्रीजी की कुमारी कन्या उससे पाकर मिली, अपनी घरेलू सभ्यता के अनुसार थोड़े सामान और भरे-पूरे हृदय से कमला ने उसका स्वागत किया। बातचीत होने लगी। "तुम बहुत दिनों से यहाँ रहती हो, कल मैंने सुना।" मंत्रीजी की लड़की वेदवती ने कहा।