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लिली प्रणय से विजय का चिन्त चपल हो उठा। अब तक जिस अदेख मुख पर असंख्यों कल्पनाएँ उसने की हैं, उसे देखने को यह कितना शुभ, सुंदर अवसर मिला। उसने पिता को, ससुर को, समाज को भरे आनंद के छलकते हृदय से चार- बार धन्यवाद दिया। साथ युवती बहू का घूघट उठा चंद्रमुख को देखने को चकोर-जालमा प्रबल हो उठी । डाकगाड़ी पूरी रफ़्तार से जा रही है। विजय उठकर बहू के पास चलकर बैठा । सवाग काँप उठा। चूँघट हटाने के लिये हाथ उठाया। कलाई काँपने नगी । उस कंपन में कितना आनंद है ! रोए-रोएँ के भीतर से थानंद की गंगा बह चली। विजय ने बहू का घूघट उठाया, त्रस्त होकर चीख उठा-- !-तुम हो?" विवाह का यही सुख है।" ज्योतिर्मयी की आँखों से घृणा मध्याह्न की ज्वाला की तरह निकल रही थी । “छिः ! मैंने यह क्या किया ! यह वही विजय-संयत, शांत वही विजय है ? ओह कैसा परिवर्तन ! इसके साथ अब अप- गधी की तरह, सिकुड़कर, घर के एक कोने में मुझे संपूर्ण जीवन पार करना होगा। इससे मेरा वैधव्य शतगुण, सहस्त्र- गुण अच्छा था ! वहाँ कितनी मधुर-मधुर कल्पनाओं में पल रही थी ! वीरेंद्र ! तुम्हारे-जैसा सिंह-पुरुष ऐले स्थार का भी साथ करता है ? तुमने इधर डेढ़ महीने से मेरे लिये कितना ।