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इतना कभी ज्योतिर्मयी स्मृति भी चित्त के अतल-मश को चली गई। अब विजय को उसके चरित्र पर रहकर शंका होने लगी है। सोचता है, बुरा फँस गया था, बच गया। सच कहा है- स्त्रीचरित्रं पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति कुतो मनुष्यः ?" अब नई कल्पनाएँ उसके मस्तिष्क में उठने लगी है। एक अज्ञात, अपरिचित मुख को जैसे केवल कल्पना के दल से प्रत्यक्ष कर लेना चाहता है, और इस चेष्टा में सुख भी कितना नहीं मिला। इस अज्ञात रहश्य में वह ज्योतिर्मयी की अम्लान छवि एक प्रकार भूल हो गया। (४) विजय ने विवाह के उत्सव में मिलने के लिये वीरेंद्र को लिखा था, पर उसने उत्तर दिया कि "मैं तो विजय का ही मित्र हूँ, किसी पराजय का नही ; इस विवाह में मैं शरीक क हो सकूँगा।" जैसा पहले से निश्चय था, जल्दबाजी का बहाना कर पं० गंगाधर ने जाने-जाने रिश्तेदारों को छोड़कर और किसी को न बुलाया। इसी कारण ज्योतिर्मयों के यहाँ निमंत्रण न पहुँच सका। इधर भी जहाँ कहीं न्योता गया, वहाँ से कुछ हो लोड आए । कारण, संदेह की हवा बह चुकी थी। बारात चली। लखनऊ में वीरेंद्र से विजय की मुलाकात हुई । वीरेंद्र ने पूछा-"यार, तुम तो ज्योतिर्मयो को भूल ही गए, इतने गल गए इस विवाह में !"