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ज्योतिर्मयी


"ठीक है।"

"बस, यही ठीक है।"

विजय के पिता पं० गंगाधर मिश्र और चचा पं० कृष्णशंकर रक्त चंदन का टीका लगाए, रुद्राक्ष की माला पहने, खड़ाऊँ खटपताते दरवाज़े-चौपाल में, नेवाड़ के पलँग पर, धीर-गंभीर मुद्रा से, सिर झुकाए हुए, पाकर बैठ गए। एक भूँज की चारपाई पर कन्या-पक्ष के पं० सत्यनारायण शर्मा मिर्जई पहने, पगड़ी बाँधे बैठे हुए थे। मिश्रजी को देखकर पूछा—"तो क्या आज्ञा देते हैं मिश्रजी?"

पंडित गंगाधर ने पं० कृष्णशंकर की ओर इशारा करके कहा—"बातचीत इनसे पक्की कीजिए। मकान-मालिक तो यह है।"

पं० सत्यनारायणजी ने पं० कृष्णशंकर की ओर देखा।

"बात यह है पंडितजी कि दहेज बहुत कम मिल रहा है। आप सोचें कि अब तक सात-आठ हज़ार रुपया तो लड़के की पढ़ाई में ही लग चुका है। लखनऊ के वाजपेयी आए थे, हमारा उनका संबंध भी है, छ हज़ार देते थे, पर हमने इनकार कर दिया। अब हमको खर्च भी पूरा न मिला, तो लड़के को पढ़ाकर हमने फ़ायदा क्या उठाया? इस संबंध में (इधर-उधर झाँककर) हमें कुछ मिला भी नहीं, तो इतना गिरकर...।"

"अच्छा, तो कहिए, क्या चाहते हैं आप।"

"पंद्रह हज़ार।"