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लिली

गाँव के मिश्र, कुलीन कान्यकुब्ज। विवाह अधिक दहेज़ के लोभ से उन्होंने रोक रक्खा था। अब तक जितने संबंध आए थे, तीन हज़ार से अधिक कोई नहीं दे रहा था। अब के एक संबंध आया हुआ है, उसकी तरफ़ विजय के पिता का विशेष झुकाव है। ये लोग मुरादाबाद के बाशिंदे हैं। पंद्रह दिन पहले ही विजय की जन्म-पत्रिका ले गए थे। विवाह बनता है, इसलिये दोबारा पक्का कर लेने को कन्या-पक्ष से कोई आया हुआ है। विजय के पिता और चचा मकान के भीतर आपस में सलाह करते हैं।

"दादा, लेकिन एक पै तो है, ये सनाढ्य ब्राह्मण हैं, ऐसा फिर न हो कि कहीं के भी न रहें।"

"तुम भी; मारो गोली; हमको रुपए से मतलब; हमारे पास रुपया है, तो भाई-बंद, जात-बिरादरीवाले सब साले आवेंगे नहीं तो कोई लोदे-भर पानी को न पूछेगा।"

"तो क्या राय है?"

"विवाह करो, और क्या?"

"सात हजार से आगे नहीं बढ़ता।"

"घर घेरे बैठा है, देखते नहीं? धीरे-धीरे दुहो; लेकिन शिकार निकल न जाय।"

"अब फँसा है, तो क्या निकलेगा।"

"डर कौन—बारात में घर के चार जन चले चलेंगे। कहेंगे दूर है, खर्चा नहीं मिला।"

"वही खर्चा यहाँ करके खिला दिया जाय—है न?"