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लिली

घाट पर नहीं जा सकता, और केवल कूल इतना बीहड़ है कि मेरे थके हुए पैर वहाँ जम नहीं सकते, वहाँ दृष्टियों का ताप इतना प्रखर है कि वह फूल मुरझा जायगा, मैं भी झुलस जाऊँगा।"

"तो सारांश यह कि तुम उस पावन-भूर्ति अबला का, जिसने तुम्हें बढ़कर प्यार किया--मित्र समझकर गुप्त हृदय की व्यथा प्रकट कर दी, उस देवी का समाज के पंक से उद्धार नहीं कर सकते।"

"देखो, मेरा हृदय अवश्य उसने छीन लिया है, पर शरीर पिताजी का है, वीरेन, मैं यहाँ दुर्बल हूँ।"

"कैसी बाहियात बात! कितनी बढ़ी आत्मप्रवंचना है यह! विजय, हृदय शरीर से अलग भी है? जिसने तुम पर क्षण-मात्र में विजय प्राप्त कर ली, उसने तुम्हारे शरीर को भी जीत लिया है। अब उसका तिरस्कार परोक्ष अपना ही है। समाज का धर्म तो उसके लिये भी था--क्या फूटे हुए बरतन की तरह वह भी समाज में एक तरफ़ निकालकर न रख दी जाती? क्या उसने यह सब नहीं सोच लिया?"

"उसमें और-और तरह की भी भावनाएँ होंगी।"

"और-और तरह की भावनाएँ उसमें होती, तो वह तुम्हारे भाई की ससुरालवालों के सगर्व मुखों पर अच्छी तरह स्याही पोतकर अब तक कहीं चली गई होती, समझे? वह समझदार है। और, तुम्हारे सामने जो इतना खुली है, इसका