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ज्योतिमयी

रखिएगा--आपसे इतनी ही कर-बद्ध प्रार्थना......" युवक दृष्टि से ओझल हो गया।

(२)

"पिघलकर पत्थर भी उस पत्र को पढ़ने पर बह जाता है वीरेन!" विजय ने सहानुभूति के शब्दों में वीरेंद्र से कहा।

"दिल के तुम इतने कमज़ोर हो? नष्ट होते हुए एक समाजक्लिष्ट जीवन का उद्धार तुम नहीं कर सकते विजय? तुम्हारी शिक्षा क्या तुम्हें पुरानी राह का सीधा-सधा एक लद्द बैल करने के लिये हुई है?" वीरेंद्र ने चिंत्य भर्त्सना के शब्दों में कहा।

"पिताजी से कुछ बस नहीं वीरेन, उनके प्रतिकूल कोई आचरण मैं न कर सकूँगा! पर आजीबन-आजीबन मैं सोचूंगा कि दुर्बल समाज की सरिता से एक बहते हुए निष्पाप पुष्प का मैं उद्धार नहीं कर सका, खास तौर से इसलिये कि मुझे उसने तैरना नहीं सिखलाया।"

"तुम्हें एक दूसरी सामाजिक शिक्षा से तैरना मालूम हो चुका है।"

"हाँ, हो चुका है, पर केवल तैरते रहना, फिर किनारे पर लगना नहीं; सब घाट हमारे समाज द्वारा अधिकृत हैं, और केवल तैरते रहना मनुष्य के लिये असंभव है।"

"तुम कूल पर आ सकते हो।"

"पर उस फूल को लेकर नहीं, तब समाज के किसी भी