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ज्योतिर्मयी

"मानती रहें, चूँकि आप ही लोगों ने, आप ही के बनाए हुए शास्त्रों ने, जो हमारे प्रतिकूल हैं, हमें जबरन् गुलाम बना रक्खा है; कोई चारा भी तो नहीं-कैसी बात है !" कमल को पंखड़ियों-सी उज्ज्वल बड़ी-बड़ी आँखों से देखती हुई, एक सत्रह साल की, रूप की चंद्रिका, भरी हुई युवती ने कहा।

"नहीं, पतिव्रता पत्नी तमाम जीवन तपस्या करने के पश्चात परलोक में अपने पति से मिलती है।" सहज स्वर से कहकर युवक निरीक्षक की दृष्ट से युवती को देखने लगा।

युवती मुस्किराई--तमाम चेहरे पर सुखी दौड़ गई। सुकुमार गुलाब के दलों-से लाल-लाल होठ जरा बढ़े, मर्मरोज्ज्वल मुख पर प्रसन-कौतुक-पूणे एक ज्योतिश्चक्र खोलकर यथास्थान आ गए।

"वाक्ये का दरिद्रता !” युवती मुस्किराती हुई बोली-

"अच्छा बतलाइए तो, यदि पहले ब्याही स्त्री इसी तरह स्वर्ग में अपने पूज्यपाद पति-देवता की प्रतीक्षा करती हो, और पतिदेव क्रमशः दूसरी, तीसरी, चौथी पनियों को मार-मारकर प्रतीक्षार्थ स्वर्ग भेजते रहे, वो खुद मरकर किसके पास पहुँचेगे ?" युवती खिलखिला दी।