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जिली महाराज को दासी-रूप से अपनी कन्या का समर्पण किया है।" राजा साहब को शब्द बुरे लगे। पूछा-'दासी-रूप क्या है ? प्रधान पंडित ने कहा--"आपने अपनी कन्या महाराज की सेवा के लिये दी।" राजा साहब रुष्ट होकर बोले- श्राप केवल दासी और सेवा का उल्लेख करते हैं।" पंडित ने कहा-महाराज के पूज्य पिताजी की ऐसी ही प्राज्ञा है; वह महाराज पा रहे हैं।" राजा महेश्वरसिंह ने देखते हो पुकारा-"शत्रुहनसिंह !" "चुप ! कान पकड़कर निकाल दिए जाओगे।" पास ही खड़े हुए महाराज के एक शरीर-रक्षक ने कहा। राजा महेश्वरसिंह", महाराज शत्रुहनसिंह ने कहा--- "तुम्हारी जैसी लड़की है, हमने वैसा विवाह भी कराया । हम, अपने विपक्ष के सताए हुए; राज्य से भगकर तुम्हारे यहाँ दो रोटियों के लिये राज्य के हकदार बच्चे को लेकर गए थे। समय बदला । लड़के को गद्दी मिली । तुम और तुम्हारी यह सात रोज तक हमारे जूते उठाओ, तो तुम्हारी लड़की को लड़की समझकर, क्षमा कर, लड़के के साथ एक आसन पर बैठने का अधिकार हम देंगे। क्षत्रिय होकर क्षत्रिय के साथ वैसा नीच बर्ताव तुम देखते रहे !"