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प्रेमिका-परिचय खेल समान हुआ रास्ते पर आ प्रेमकुमार ठाट से टहलने । लगे। उन्हें शांति न मिली । जितनी शांतियाँ अपने पति को हाथ से पकड़े हँसती हुई शैलबाला की आलोचना में मुखर उधर से निकली, सभी बाबू प्रेमकुमार को जला-जलाकर चली गई। हताश होकर भी आशा के क्षीण-क्षणिक आश्वासन से हृदय को बाँधकर प्रेमकुमार एक ताँगे पर आ बैठे, और बादशाह बाग चलने के लिये कहा। प्राणों की प्रेयसी प्रतिमा को पुनः पुनः दैत्यों के वीर भाव से अणुओं में चूर्ण करने लगे, और वह उन्हीं के प्राणों से शक्ति ग्रहण कर-कर परमाणुओं से सुंदर रूप-बंध में गठित हो-हो- [-माज की उन्हीं रूपसियों के चेहरे-चेहरे से, जिन्हें वे अच्छी तरह कुछ देर पहले देख चुके हैं, जो कुछ देर पहले उन्हें आँखों का दृष्टि में लांछित कर चुकी हैं-साया-मरीचिका में आँखों की दृष्टि हर-हर शांति के रूप में उठ-उठ लुभाने लगी। निरुपाय प्रेमकुमार होस्टल पा, किराया चुकाकर, चुपचाप अपने कमरे में चले गए । शंकर पढ़ रहा था, पर अभी चल- कर बातचीत करना उसने ठीक न समझा ! सुबह भी शंकर समय बरवाद होने के विचार से प्रेमकुमार से नहीं मिला । उधर प्रेमकुमार भी चिंताजनक मानसिक स्थिति के कारण सुबह शंकर से आकर नहीं मिल सके। कॉलेज से लौटकर बाहर से शंका ने आहद ली। प्रेम-