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प्रेमिका-परिचय तो जाने के समय मुलाकात हो जायगी, और मालूम भी हो जायगा कि वह किस दर्जे में गई। अभी से टिकट खरीदकर कहीं जाकर बैठना बेवकूफी होगी ! कहीं उस दर्जे में शांति न मिली, न गई, तो ? कोई भी प्रवीण नवीन पनी का हाथ पकड़े उधर से गुजरता है, तो प्रेमकुमार उन्हें शांति और उसका बाप समझकर प्रेम से सिहर उठते हैं, फिर तरुणी की जलती दृष्टि से मौन लांछन पा रह जाते और दूसरे वार की प्रतीक्षा करते हैं। समय केवल दो मिनट खेल शुरू होने का रह गया, तब बहुत घबराए 1 निश्चय हुआ कि शांति उनके आने से पहले भीतर चली गई, और अतृप्त आँखों से उनकी राह देखती होगी। बड़े बेचैन हुए। कहाँ, किस दर्ने में जायें, कुछ ठीक नहीं हो रहा । कहाँ वह बैठी उनके नाम की माला जप रही है, कैसे मालूम करें । अत में, वाहर रहने से भीतर रहना अच्छा। इस विचार से अपना लाइब्ररीवाला कार्ड दिखलाकर ऊपर का टिकट कंसेशन से ले लिया । जाते-जाते बत्ती भी बुझ गई, खेल शुरू हो गया । इच्छा थी, ऊपर और जहाँ तक नजर जायगी, शांति को उजाले में खोजेंगे। दिल बैठ गया। खेल शुरू हो गया । प्रेमकुमार की घबराहट बढ़ चली । लोग एकाध होकर तमाशा देख रहे हैं। प्रेमकुमार चित्त की अपलक भाँखों से शून्य शांति का ध्यान कर रहे हैं, उसकी बातें सोच रहे हैं.---"उसने लिखा है, मैंने तुम्हें देखा है। तुमने