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लिली "करारी चोट तुम पर है, तड़प मुझे हो चली है !" . "कोई लमज निकाल दो, तो सारा मजमून लँगड़ा ।" दाढ़ी में साबुन लगाते हुए प्रेमकुमार ने कहा- मैं मिल लूँ, फिर बादा करता हूँ, तुम्हें जरूर मिला दूंगा। इसी तरह धीरे- धीरे भले श्रादमी बन जाओ। अब जमाना ब्राह्मणोंवाले खयालात से बहुत दूर बढ़ गया है। तुम बाकायदा पढ़े-लिखे आदमी हो, कुछ अपनी तरफ़ से भी समझो। और, मैं तो पहले मिलने-जुलने की आजादी मानता हूँ, फिर और।" (४) छ का समय है। एलफिस्टन-पिक्चर-पैलेस के सामने लोगों की भीड़ है। शैलबाला-फिल्म जोरों से चल रही है। चवन्नी और अठन्नीवाले झरोखे में लखनऊ के पानवाले, हिंदू-मुसल- मानों के, भावारागर्द नौजवान लड़के और गरीब बाशिंदे एक -दूसरे पर चढ़े हुए टिकट के लिये बढ़ते जा रहे हैं। कई प्राइवेट मोटरें आकर लगी हैं। प्रेमकुमार बड़ी देर तक इधर-उधर रहलते रहे। कुछ देर तक तस्वीरें आजवाली और आगे होने- वाली फिल्मों की, सुलोचना, जुबेदा, माधुरी, कजन, मुश्तरी, शीला, कूपर और मुख्तार बेगम आदि की देखते रहे, यद्यपि इन सबके चित्र उनके कमरे में बड़ी हिफाजत से रक्खे हैं, और जुबेदा की एक तस्वीर बड़े खर्च से, सुनहले बार्डर में, श्राईने की तरह टेकदार, बँधवाकर मेज पर रख दी है। वहाँ तस्वीरों के पास रहने का खास मतलब यह है कि शांति आवेगी .