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लिली

करता रहा हूँ, शायद इससे ज्यादा सुनने की तुम्हें इच्छा न होगी।" गर्व से रामेश्वरजी टहलने लगे।

पद्मा के हृदय के खिले गुलाब की कुल पंखड़ियाँ हवा के एक पुरज़ोर झोंके से काँप उठीं। मुक्ताओं-सी चमकती हुई दो बूदें पलकों के पत्रों से झड़ पड़ीं। यही उसका उत्तर था।

"राजेन जब आया, तुम्हारी माता को बुलाकर मैंने ज़ीने पर नौकर भेज दिया था, एकांत में तुम्हारी बातें सुनने के लिये।--तुम हिमालय की तरह अटल हो, मैं भी वर्तमान की तरह सत्य और दृढ़।" रामेश्वरजी ने कहा--"तुम्हें इसलिये मैंने नहीं पढ़ाया कि तुम कुल-कलंक बनो।"

"आप यह सब क्या कह रहे हैं ?"

"चुप रहो। तुम्हें नहीं मालूम? तुम ब्राह्मण-कुल की कन्या हो, वह क्षत्रिय-घराने का लड़का है--ऐसा विवाह नहीं हो सकता।" रामेश्वरजी की साँस तेज चलने लगी, आँखें भौंहों से मिल गईं।

"आप नहीं समझे मेरे कहने का मतलब।" पद्मा की निगाह कुछ उठ गई।

"मैं बातों का बनाना आज दस साल से देख रहा हूँ। तू मुझे चराती है? वह बदमाश......!"

"इतना बहुत है। आप अदालत के अफ़सर हैं! अभी-अभी आपने कहा था, अब तक अक़्ल की पहचान करते रहे हैं, यह आपकी अक़्ल की पहचान है! आप इतनी बड़ी बात राजेंद्र