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- प्रेमिका-परिचय ११३ कहा- देखो, क्या लिखा है !" शंकर उठाकर पढ़ने लगा। !" अँगरेज़ी में पत्र यों लिखा है- मेरे प्रिय प्रमकुमार. आज कितने दिनों से कोलेज जाती हूँ. तो एक बार तुन्हें अवश्य देखता हूँ | नहीं देखती, तो दिल की आग नहीं बुझती। पर तुम, तुम कितने कठोर हो, मेरी तरफ भूलकर भी नहीं देखते ! ईश्वर ने तुम्हें यह रूप मुझे जलाने के लिये दिया था। जो चीज़ अपनी नहीं, मैं उसे चाहती हूँ। तुम हँसोगे। न हँसो, यह मेरे भाग्य होंगे । पर क्या मैं आशा करूँ कि मुझे जलानेवाली आग तुम मुझे दोगे ? जरूर दो, जरूर दा, प्यारे, मैं कुछ भी तुमसे इस नश्वर संसार में नहीं चाहती. सिर्फ वहीं आग, बही जलती हुई मुझे जलाने वाली अपने रूप की आग एक बार मुझे दे दो, और देखो, मैं तुम्हारे सामने ही किस तरह जलकर राख हो जातो हूँ ! प्यारे, अब यह हाथ जवाब दे रहा है. आँसुओं का तार बंध रहा है, क्या लिखू ? क्या एक बार, बस एक बार के तुम मेरे प्यासे हगों को । करने के लिये कल शाम बनारसी-बारा में मुझे मिल गे ? तुम्हारा हमेशा, हमेशा के लिये दिल से आभार मानूंगी ! ५, हिवेट रोड तुम्हें न मिल सकनेवाली तुम्हारी शांति पत्र को बड़े गौर से शंकर ने कई बार साद्यंत पढ़कर कहा- —भई, है तो यह किसी सच्चे दिल की पुकार !" लखनऊ }