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प्रेमिका-परिचय १११ और चलने की शंकर को हिम्मत नहीं होती, क्योंकि धर्मभीरुता ने उसे वास्तव में भीर बना दिया है। जब प्रेमकुमार सुनाते हैं-"आज मिस 'सी' ने सिकंदर-बाग में बुलाया था। क्या करूँ, किसी का न्योता टाल तो सकता नहीं, जाना पड़ा, भई जान देती हैं। पूछने लगी, कहो, तुम हमेशा के लिये हमारे हो ? कहना पड़ा। अब ऐसा प्यार ठुकराया तो जाता नहीं। फिर क्या कहूँ कि क्या-क्या बातें हुई। वहाँ से हम लोग कार्लटन होटल गए खाया-पिया, मौज से बारह बजे तक रहे।" सुनकर शंकर चलते मूसल से ऊखल की दशा को प्राप्त होता है, तत्काल वासना वशीभूत कर लेती है। पर पिता की बात, जात जाने का भय, हकप पैदा कर बढ़ने से रोक लेते हैं। जब तक वह अपनी बिगड़ी दशा को राम नाम जपकर सुधारता है, तब तक बाबू प्रेमकुमार अपनी दूसरी घटना उसके सर पटक देते हैं.-"कल मिस लीलावती का पत्र मिला था। लखनऊ में उससे खूबसूरत कोई नहीं, यह मैं दावे के साथ कह सकता हूँ। क्या राजन की आँखें हैं ! देख ती क्या पार कर जाती है। रात आठ बजे विक्टोरिया-पार्क में मिलने के लिये बुलाया था । देखो, यह सब इस चेहरे की करामात है। दुनिया में कामयाबी हासिल करना चाहते हो, तो पहले चेहरा सुधारो। मैं कहता हूँ, तुम जैसे मनहूस, मुहर्रमी सूरत बनाए फि ते हो, तुम्हारी बीवी भी तुम्हें नहीं प्यार कर सकती । यह चेहरा ही प्यार करनेवाला नहीं। हाँ, फिर लीलावती से बड़ी दूर तक