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- चतुरसेन की कहानियाँ ढल चुका था, मौसी ने बुला कर कहा-"बेटी, नहाधोकर नई साड़ी पहन ले, बालों का अगरेजी जूड़ा बाँध ले, पैरिस की जरीकट साड़ी पहन ले, और जरा सलोन का ध्यान रख ! खबरदार, नादानी न करना ।” मैं कुछ समझी, कुछ नहीं चली आई । मन में उथल-पुथल मच गई, नहीं कह सकती भय से या आनन्द से। रात सिर आ गई और मेरा शृङ्गार खतम ही न होता था। १० बजे एक अल्पवयस्क सुन्दर कुमार ने मेरे कमरे में प्रवेश किया, मैंने इन्हें कभी न देखा था। एकान्त में मेरे पास किसी पुरुष का आना प्रथम बात थी, पर बहुत सी बातें तो मैं देख- भाल कर ही समझ गई थी। फिर भी मैं डर गई, मैंने सहम कर उनसे कहा-“मौसी उधर हैं, आप वहाँ जाइए।" उन्होंने हँस कर कहा-"जल्दी क्या है, जरा देर आपसे भी बातें कर लूँ ?' अब मैं क्या कहती ? चुप बैठ गई ! उन्होंने कहा-क्या आप नाराज हो गई ? “जी नहीं।" "फिर चुप्पी क्यों ?" "आप कुछ दर्याप्त करें तो जवाब दूं।" बस बातों का सिलसिला चल गया, और क्या-क्या हुआ, वह सब कहने से फायदा ? सबका अभिप्राय यही है कि अन्त में मैं उस युवक के हाथ बिकी, उसने मुझे सब कुछ दिया और मैंने उसे भी! मैं वेश्या थी भी नहीं, और उसकी वृत्ति को समझती भी न थी! मेरा जीवन था, आयु थी, समय था और उसका प्रभाव था, मैं क्या करती ? मैंने अपना तन, मन उसे दिया, और उसने ? मैंने जो आज तक न पाया था, वह दिया । 2