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पविता रही थी। एक धानी डुपट्टा उसके वक्ष-स्थल पर अस्त व्यस्त पड़ा था, पर उस अनिन्छ वक्षस्थल को शृङ्गार करने के लिए और विसी परिधान की आवश्यकता ही न थी। प्रभातकालीन नव- विकसित कमल-पुष्प के सम न उसको बड़ी-बड़ी आँखें और फूले हुए लाल-लाल होंठ ! हल्के पारदर्शी रङ्ग से प्रतिविम्बित से गाल उसकी मुग्व-मुद्रा को लोकोत्तर बना रहे थे। उसके दाँत किस कारीगर ने बनाए थे, यह मैं मूर्ख क्या बताऊँ ! पर उनकी चमक से चौंध लगती थी। हीरा ने अनायास ही मुझे देखा, सभी ने देखा, मैं सहम कर ठिठक गई ! उसने मुस्करा कर पास बुलाया, गोद में बैठा कर पुचकारा, प्यार किया, मेरे देहाती वस्त्रों को देखा आर हंस दी। उसने प्यार से मेरे गालों पर चुटकी ली और मेरे शृगार में लग गई। उबटन किया, बोटी में तेल दिया, कपड़े बदले और न जाने क्या क्या किया। इसके बाद मेज पर उचका कर मुझे रख दिया, और सहेलियों से बोली- "देखो री, हमारी छाटा रानी कितनी सुन्दर है। उसने मुझे चूमा, फिर तो मुझ पर इतने चुम्मे पड़े कि मैं घबरा गई । उन चुम्मा में, उस प्यार में, उस शृङ्गार में मैं अपना बचपन, वे पवित्र खेल-कूद, वे पर्वत-श्रेणी, उपत्यकाएँ, माता-पिता, सहेली-सभी को। मेरे मन में एक रङ्गीन भाव की रेखा उठा और धोरे-धारे मैं मदमाती हो चली ! भूल गई- ३ परन्तु, उस भीषण ऐश्वर्व और ज्वलन्त रूप की जड़ में जो पाप था, उसे मैं कैसे ससमती ? पाप कहते किसे हैं, यही मैं