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चतुरसेन की कहानियाँ से निकल जाती। मरने का मोती के समान उज्वल और बर्फ के समान ठंडा पानी, इठला-इठला कर पीती, उसमें पत्थर मार कर उसे उछालती, कभी पत्ते की नाव बना कर बहाती! ओह ! मैं कितना हँसती थी? हँसते-हँसते झाँसू निकल आते थे। आज तो रोने पर भी नहीं निकलते, मालूम होता है कलेजे का सारा रस सूख गया है। लड़कियों को मैं खूब मारतो, पर पीछे उन्हें चुमकार-पुचकार कर राजी भी कर लेती। मुझमें अकड़ खूब थी, पर मैं भोली भी एक ही थी, जो कोई मुझसे प्यार से बोलता, मैं उसकी चाकर, जो जरा देढ़ा हुआ और बस फिर मैं भी टेढ़ी! जीवन क्या होता है, मैंने कभी नहीं जाना; मैं बड़ी हो जाऊँगी, यह मैंने नहीं सोचा; मुझ पर दुनियाँ की कोई जिम्मे- दारी पड़ेगी, इसका ध्यान भी न था। भविष्य की थानेवाली सारी आँधियों और तूफानों के भय से दूर मैंने हिमालय की पवित्र और सुखमयी गोद में अपने हीरे मोतो से ग्यारह साल च्यतीत किए। २ 1 दिल्ली देखकर मैं सचमुच घबरा गई थी। और मौसी के घर मेंघुसते तो भय लगता था। वह घर था ? दैदीप्यमान इन्द्रभवन था । वह सजावट देखकर मेरी आँखें बन्द होने लगीं। बढ़िया रंग-विरंगे कालीन, दूध के समान रजनल चाँदनी, बड़े-बड़े मस- नद, मखमली गई, मसहरियाँ, तस्वीर, सिङ्गारदान, आइने और न जाने क्या-क्या ? मेरे पद-स्पर्श से, छू लेने से कहीं कोई