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चतुरसेन की कहानियाँ था, और मेरे मन में उसके प्रति आदर था। मेरी आयु यद्यपि तीस वर्ष के लगभग ही थी, और मेरी पत्नी का जीवन के आरंभ ही में देहान्त हो गया था, फिर भी उसके प्रति प्रेम की भावना से देखने का साहस मैं न कर सका था। वह मुझे “बड़े भाई" कहकर पुकारती थी। मुझे देखते ही उसने मुझसे कहा-"बड़े भाई, देखो बाचा की क्या हालत हो गई है। कई दिन से तुम्हें याद कर रहे हैं, पर मैं इन्हें छोड़ अकेली इतनी दूर तुम्हारे घर नहीं जा सकती थी। बूढ़े को होश हुमा, तो रजिया ने उसके पास जाकर कहा- "बाबा बड़े भाई आये हैं।" बूढ़े ने मेरी तरफ मुख किया, मैंने समझ लिया, अब चिराग बुझने में बिलम्ब नहीं। मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा--"प्रोफ, आप इतने कमजोर हो गए, मुझे खबर भी नहीं भेजी। आज तो आप मेरे मन की साध मिटा दीजिए, मुझे कुछ खिदमत करने का हुक्म दीजिये। बूढ़े ने कंपित स्वर में कहा-"अच्छा, तुम मेरी ओर से रजिया का एक काम कर दोगे? "बहुत खुशी से " मैंने उत्सुकता से कहा । बूढ़े ने मंद स्वर से रजिया को कुछ संकेत किया। वह कोठरी के एक कोने से कपड़े में लपेटा हुआ एक पुलिंदा ले आई। बूढ़े ने उसे अपने हाथ में ले, छाती से लगा, फिर मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा- "इन कागजों को सम्भाल कर रखना, जान से भी ज्यादा, और जब रजिया अठारह साल पार कर जाय, तब खोलना। इसमें जैसा लिखा है, वैसा ही करना । जबान दो, करोगे।" ७२