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चतुरसेन की कहानियाँ था। बदली खुल गई थी। उस दिन दफ्तर से लौटते देर हो गई थी। अंधेरा होने लगा था। मैं क्षण भर रुककर उसकी ओर देखने लगा। वह अपने स्थान से उठा। उसने धीरे से, मानो वह आत्मनिवेदन कर रहा हो, कहा था खुदा आज तो कुछ भी नहीं। उसने गंभीरता से अपनी दाढ़ी हिलायी, और अपनी लाठी टेकता हुआ चल दिया। मैं भी मंत्रमुग्ध की भाँति उसके पीछे हो लिया। मुझे उसके प्रति कौतूहल हो रहा था, क्योंकि उन सुपरिचित शब्दों के सिवा प्रथम बार ही मैंने उसके मुंह से निकले ये शब्द सुने थे। ३ वह पतली और सँकरी गलियों को पार करता हुआ धीरे धीरे, उसी लाठी की आँखों से राह टटोलता हुआ, चला जा रहा था। पीछे-पीछे मैं था। बस्ती का शानदार भाग पीछे छूट गया था। अब वह गरीबों के टूटे फूटे घरों के पास गुजर रहा था। अंत में एक खंडहर के समान घर के द्वार पर वह खड़ा हो गया। उसने कुंडी खटखटाई, और एक किशोरी बालिका ने आकर द्वार खोल दिया। यद्यपि मैं कुछ दूर था, फिर भी मैंने उस सुकोमल मूर्ति को देख लिया। उसे देखकर ऑखें हरी हो गई। उन आंखों ने भी, मालूम होता है, मुझे देख लिया। यद्यपि उन दूध समान स्वच्छ आँखों की होष्ट पड़ते ही मेरी आँखें नीचे को झुक गई थी, फिर भी जैसे मेरा मूक निवेदन वहाँ तक पहुँच चुका था। 1