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चतुरसेन की कहानियाँ नहीं बाँधी गई थी। सुगन्धित मोमबत्तियाँ शमादानों में जल रही थी। खाना बनाने से सभी स्नुश हुए। नई बावचिन की तारीफ के बधने लगे। दोस्तों ने कहा--जरा और इनाम हाजिर इलाहाबख्श ने बार्चिन को बुला भेजा। उसने कहा- अ का से दस्त-बदस्ता अजी है कि मैं गैर-मदों के सामने वेपर्दा नहीं हो सकती। हां, अका से पढ़ी फजूल है। दोस्त लोग मन मार कर रह गए । मगर इलाहीबख्श के मन में प्रति क्षण बाव- चिन को देखने की बेचैनी बढ़ चली। एकान्त होने पर उन्होने बुला भेजा। बावचिन ने जवाब दिया-मेरे मिहरबान मालिक ! सफर, मिहनत और भूख से बेदम तथा कपड़ों से गलाज हूँ-खिदमत में हाजिर हाने के काबिल नहीं। इलाहाबख्श स्वयं भीतर गए और बावचिन के सामने जा खड़े हुए। बोल-क्या मैं तुम्हारी मुसीबत का दास्तान सुन सकता हूँ ? यह तो मैं ससझ गया कि तुम शरीफ खानदान की दुखियारी हो। बावचिन ने अच्छी तरह अपना बुर्का मोड़ कर कहा- मालिक ! मेरा कोई दास्तान ही नहीं ! "क्या मुझसे पर्दा रक्खोगी ?" "यह मुमकिन नहीं है !" "तब? "क्या आप मुझे देखना चाहते हैं ?" "जरूर, जरूर वह मैला और फटा बुर्का चम्पे की समान उँगलियों ने