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बात मेरे चतुरसेन की कहानियाँ गुण्डे के लिए कैसा कठिन है, फिर चाहे वह गुण्डा महाराजा ही क्यों न हो? इतना कह कर वह लाल-लाल आँखों से मुझे घुरने लगी, मैं अपराधिनी की आँति थर-थर काँपने लगी। क्या यह आश्चर्य की बात न थी ? एक ऐसी वीर महिला के सामने, जो अपनी इज्जत बचाने को जान पर खेल गई है, मेरी जैसी जन्म-अभागिनी, जो उसी इज्जत को बेच कर पेट ही नहीं भरती, शान से रहना भी चाहती है-क्या खड़ी रह सकती थी ? मैं खिड़की में मुंह डाल कर रोने लगी। वह उठ कर आई, कहा-रोती क्यों हो ? क्या कोई कड़ी मुख से निकल गई। ऐसा हो तो माफ करना, मैं आपे में नहीं हूँ। मैंने उसका आँचल उठा कर आँखों में लगाया, उसे चूमा और फिर मैं भरपेट रोई। मैंने अपना पाप स्वीकार किया- मैंने मुँह फाड़ कर कह दिया। ईश्वर ने जीवन में मुझे सच्ची स्त्री- रन के दर्शन करा दिए। ओह ! हम लाखों बेबस नारियाँ इस पवित्र जीवन से वञ्चित हैं, कोई भी माई का लाल इसका उपाय नहीं सोचता! उसने मुझे छाती से लगाया, प्यार किया। वह पवित्र वीराङ्गाना मुम पतिता वेश्या, अधम अभागिनी को बेटी की तरह दुलार करती दिल्ली तक आई। किसी तरह मेरी कोई सहायता स्वीकार न की। बहुत कहने पर कहा-"मेरे पास रुपए नहीं हैं। तुम्हारे पास हों तो १००) दे दो। ये कड़े रख लो, ६००) के हैं। मैंने रुपए दे दिए । कड़े लेती न थी, पर वह बिना दिए कब रहती ? वह मेरी आँखों से मोमल हो गई। , १०२