अपने सिर से ताज उतार कर उसके पैरो पर रख दिया और कहा,—"खुदा के वास्ते अब इस बेकस पर रहम कीजिए और अगर इस नादान की कुछ ख़ता हो तो उसे मुआफ कीजिए। किंतु विश्वासघातक और राज्यलोभी मीरजाफर बराबर यही कहता रहा कि,—"जहांपनाह! आज लड़ाई मौकूफ रहने दीजिए, फोज पीछे हटा लेने दीजिए, कल जरूर लड़ेगे।" और जगतसेठ ने तो यही सलाह दी कि,—"हुजूर का मुर्शिदाबाद ही तशरीफ लेचलना बिहतर होगा, क्योंकि इन सफ़ेदरू देवो से फतहयाबी हासिल करना गैर मुमकिन है।"
निदान, सिराजुद्दौला की फौज का मुडना था कि अंगरेज उस पर पंजे झाडकर इस तरह लपके. जैसे हिरनों के झुंड पर चीता लपकता है! आखिर, सिराजुद्दौला की फौज तितर-बितर होकर भागी और अगरेजो ने आठ मील तक उसका पीछा किया। बस, सिराजुद्दौला के नौकरों का विश्वासघात और (यह) पलासी की विजय ही मानो भारतवर्ष मे अगरेजी राज्य की जड़ जमाने की कारण हुई।
सिराजुद्दौला के भागने पर मुर्शिदाबाद के खजाने की रोकड मिलाई गई तो डेढ़ करोड रुपये के लगभग गिनती ने आए, जो अहदनामे के अनुसार सबके दाम-दाम चुका देने के लिये काफी न थे। तब अगरेज़ो ने यह वात ठहराई कि,—"अहदनामे के बमुजिब आधे आधे रुपए तो अभी चुका दिये जायं और आधे तीन किश्तो में तीन साल के अदर पटा दिये जाय।"
अन्त मे इसी सम्मति के अनुसार आधे रुपये चुका दिए गए। इसके अलाचे मीरजाफरखां ने सूबेदारी पाने की खुशी में सोलह लाख रुपए अपनी ओर से क्लाइव के नज़र किए। जब खजाने से रुपये बटने लगे, उस समय सेठ अमीचन्द मारे आनन्द के फूले अंगो नही समाते थे क्योकि उन्होंने हिसाब लगाकर अपने हिस्से के तीस-पैंतीस लाख रुपए जोड रक्खे थे! किन्तु जब फोर्ट विलियम किले के दरवार मे अहदनामा पढ़ा गया और उसमे उनका नाम न निकला तो वे बहुत ही घबराए और चट बोल उठे कि,-"क्यो साहब! यह क्या बात है कि इस अहदनामे में मेरा नाम नहीं है!
क्लाइव हा, साहब! इसमे आपका नाम नहीं है!