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[सत्रहवां
लवङ्गलता।


बातों को मन ही मन दबाए रही और सिराजुद्दौला के आने पर मुंह बनाकर कहने लगी,—

"क्यो हुज़र! लौंडी से क्या ख़ता हुई, जो कई दिनों तक हुजूर के कदम महल में न आए?"

सिराजुद्दौला ने नीठ नीठ करके अपनी बेचैनी को छिपाया और बनाघटी प्रसन्नता का पालिस अपने चेहरे पर फेरकर कहा—"प्यारी तुमने शायद मेरो कंबख़्त हमशीरा नगीना का, अपने नालायक शौहर सैय्यदअहमद को कैद से छुड़ाकर यहासे भाग जाने का हाल सुना होगा! उसी तरदुद मे कई दिनो तक मैं कदर परीशान रहा कि दुनियां के सभी ऐशो आराम की जानिब से मेरा दिल हट गया था। मगर अफ़सोस! हज़ार हज़ार कोशिशें करने पर भी नगीना या सैय्यदअहमद का पता न लगा और वे दोनों मूज़ी लापता होगए!" ् लुत्फ़॰,—"बेशक, हुजूर! इस हाल को मैंने सुना था, और बाकई, सैय्यद-अहमद का बेहाथ होजाना वड़ाभारीजरर पहुंचाएगा! मगर हजत ने भी तो उस पर बेइन्तेहा जुल्म किए थे! हुजूर को मुनासिब था कि अपनी हमशीरा काख़्याल करके नालायक सैय्यद- अहमद का कुसूर मुआफ़ करते, और आइन्दे से उसे ऐसा मौका न देते, जिसमे उसे फिर शर्कशी करने की जगह मिलती। खैर जो हुआ, सो हुआ, अब हुजूर उसकी फिक्र छोड़ दें।"

सिराजु॰,—"प्यारी, बेगम! तुम शायद सैय्यदअहमद की बगावत का मुफस्सिल हाल नही जानती, वर न तुम उसके भागने पर मुझे ख़ामोशी अख्तियार करने की सलाह हर्गिज़ न देतीं, मगर खैर, अब, जब कि उम कम्बलत का पता ही नहीं लगता तो मैं कर ही क्या सकता हूं।"

इसके बाद लुत्फ़उन्निसा ने तीखे नैनो से सिराजुद्दौला की ओर घूरकर कहा,—" और क्या उस नाज़नी का भी कोई पता न लगा, जिमका नाम शायद लवंगलता था और जो शायद रगपुर की रहने बाली थी!!!

यह एक ऐसी यात थी कि जिसने सिराजुदौला के सिर को एक दम नोचा कर दिया और देर तक वह धर्ती की भोर निहारता रह गया!