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पाठक! ऐसी बात नहीं है! भला, आप हो बिचारिए कि कवियों में जो चंद्रमा को नायिकाओ के मुख का उपमान माना है, यह क्या ठीक है! एक तो चन्द्रमा की स्थिति सदा एक सी नहीं रहती; क्योंकि कभी यह घटता है, कभी बढ़ता है और कभी एक दम से न जाने कहां गोता लगा जाता है! इसके अतिरिक्त गुरुपत्नी तारा के पातक से जिस चन्द्रमा के मुख में काजल पुत गया है, उसीसे हम अपनी आदर्शवाला लवंगलता के निष्कलंक मुख की उपमा दें, यह क्या कभी उचित होगा! अतएव उस सतीत्वापहारी चन्द्र की क्या सामर्थ्य है, जो वह लवंगलता जैसी सती साध्वी के मुखड़े के धोबन की भी समता कर सके!

नायिकाओं की चोटी की उपमा कवियों ने नागिन से दी है, यह बात हमारे जान कदापि संगत नहीं। भला, विष उगलने और इस लेने वाली नागिन से लवंगलता की चोटी की समता क्यो कर हो सकती है, जो (चोटी) कि विष के बदले में अमृत उगलती औरइ डस लेने के बदले में हृदय को शीतल करती है!

इसी प्रकार लवंग के विशाल भाल-फलक की उपमा क्या कंदर्प की उन रंगस्थली से दें, जहांपर एक दिन वह स्वयं शिवद्रोह की भांकर ज्वाला से भस्म हो चुका है और जहां पर उसके कुटिलाङ्ग की भस्म अब तक पड़ी हुई है!!!

लवंग की मांग की उपना ही क्या, जो अपनी लाल रसना से संसार को पुकार कर कह रही है कि,—"ले 'मांग!' जो जिसके जी में आवे, सो मुझ से "मांग" ले!!!"

तनी हुई भृकुटी की उपमा कवियों ने अविवेकी धनुष से देकर बड़ी भारी भूल की है; क्यों कि जिस नेत्र की उपमा कविजन मृग के लोचन से देते हैं, धनुष उन्हीं मृगों के बध का मूल कारण है! फिर ऐले हत्यारे धनुष के साथ उस 'अहिंसा परमो धर्मः' की उगसक भृकुटी की समता कैसे हो सकती है, जो अक्षिगोलक की सतत रक्षा करते रहने पर ही अपने को कृतार्थ समझती है!

अब रही नेत्र की बात, सो इसकी उपमा अविजन काल से देते हैं, जिसकी छटा सूर्य के बिना किसी काम ही को नहीं रहती;

और जो चन्द्रमा से म्लान होता और तुषार से हतप्रभ हो है! मतपत्र पाठक हमारी लवंगलता के स्वयं प्रभावान और सदैव

[११] सूं॰