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[पंद्रहवां
लवङ्गलता।


 

पन्द्रहवां परिच्छेद,
रूप

"अनाघ्रात पुष्प किसलयमलून कररहैः,
अनामुक्तं रत्नं मधु नवमनास्वादितरलम्॥
अखण्ड पुण्यानां फलमिव च तपमनघ,॥'

(अभिज्ञानशाकुन्तल)

हमारे उपन्यास के सुरसिक पाठको में से अनेक सज्जनों ने हमसे इस बात का अनुरोध किया है कि,—'सुन्दरी लवंगलता के नखसिख का भी उसी भांति वर्णन किया जाय, जिस प्रकार कुसुमकुमारी के रूप का बखान किया गया है; 'इत्यादि। किन्तु क्या करें, हम सुकुमारी लवंलगता के रूप के बखान करने में सर्वथा असमर्थ हैं!

पहिले तो हमे ऐसे उपमान ही नहीं मिलते, जिनसे हम अलोक-सामान्य-सुंदरी, लवंगलता के सुकोमल अंगो की उपमा दें! इसके अतिरिक्त यदि हम किसी किसी भांति कुछ उपमानो को खोज ढूंढ कर इकट्ठ भी करते है, तो वे लवंग का सामना होते ही अन्तर्धान हो जाते है! तो अब बतलाइए, पाठक ऐसी अवस्था मे हम क्या करे और किन उपमानों से लवंगलता की उपमा दें!!!

इसके अतिरिक्त एक बात और भी है, और वह, यह है कि जब जब हम सुन्दरी लवंगलता की रूपवर्णना करने का विचार करते है, तब तब उसकी अलौकिक मूर्ति हृदयपटल पर स्वयं प्रगट होकर मन, बुद्धि, चित्त, अहड्डार और हाथ की कलम को इतना चचल कर देती है कि फिर वैसा ध्यान ही नहीं बधता, जिससे उसके रूप का यथावत वर्णन किया जा सके।

किन्तु, हम जानते हैं कि इस कहने से हमारे रसीले पाठक सन्तुष्ट न होगे और वे अपने मन में यही समझेगे कि,—'हमने लवंगलता की रूपवर्णना जान बूझ कर न की! किन्तु नहीं, प्रिय