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[चौदहवां
लवङ्गलता।


अनर्थ हो जाता ओर कुसुम सिराजुद्दौला के जाल में फस जातो! क्यों कि किसी भांति कुसुम का परिचय पाकर उसी दिन सिरा. जुद्दौला ने उसके पकड़लाने के लिये अपने आदमी भेजे थे।

फिर तो कुछ दिन कुसुम को सुरक्षित स्थान में रखकर नरेन्द्र- सिंह स्वय नव्वाब को चाल परखने लगे और बराबर उसका समाचार इष्टइण्डिया कपनी के लाट क्लाइब के पास भेजने लगे। योही कुछ दिन के बीतने पर उन्होने अपने राजमन्त्री तथा मदन- मोहन पर कुसुम की माता के परलोक गमन करने और उसके साथ अपनी राजधानी मे आने का समाचार लिखा और साथ ही यह भी लिखा कि,—'कुसुम की अभ्यर्थना के लिये कैसा समारोह करना उचित होगा!'

निदान, फिर तो नियत तिथि को नरेन्द्रसिह कुसुम और चंपा को लेकर रगपूर पहुंचे और तब कुसुम ने इतने दिनो पीछे यह बात जानी कि, मेरा प्यारा नरेन्द्र वास्तव मे रगपुर का राजा है! उस दिन कुसुम की अभ्यर्थना किस भांति हुई थी, उसे नरेन्द्रसिह ने अपना परिचय किस ढग से दिया था, नरेन्द्र की बहिन लवंग लता को पाकर वह कितनी प्रसन्न हुई थी, और सबसे बढ़कर अपने प्राणनाथ के सच्चे परिचय और अलौकिक स्नेह की पराकाष्ठा काआनन्द पाकर उसे अपने सौभाग्य के महत्त्व पर कितना हर्ष हुआ था, इन बातो के जानने की जिन पाठको को इच्छा हो, उन्हें चाहिए कि हृदयहारिणी उपन्यास के सातवे, आठवे, और नवे परिच्छेद को ध्यानपूर्वक पढ़े।

कुसुम को लाकर पूरे एक महीने भी नरेन्द्रसिंह घर मे स्वस्थ चित्त से न रहने पाए थे कि इष्टइण्डिया कम्पनी के लाट क्लाइब की ओर से युद्धयात्रा का निमंत्रण आ पहुंचा। पलासी की लड़ाई छिड़ गई थी, दुर्दान्त सिराजुद्दौला के पतन का समय समीप आ गया था और अगरेजो के अभ्युदय का सूर्य उषःकाल के मध्यवर्ती रेखा के समीप पहुंच गया था।

निदान, नरेन्द्र सह को कुसुम से छुट्टी लेकर लड़ाई मे जाना पड़ा ' उनके जाने पर कुसुम ने कैसे कठिन व्रत का अनुष्ठान किया था, इसका हाल हदयहारिणी 'उपन्यास के पढ़ने पर पाठक भली भाति जान सकते है!