उस समय अंगरेज़ सौदागरी के बहाने से इस देश मे आए और बड़े बडे नगरो मे कोठियां खोल, इस देश के गपक लेने की घात मे लगे हुए थे। उस समय अंग्रेज़ो के प्रधान सहायको मे सेठ अमीचद भी थे, क्योंकि उस समय सेठ अमीचद का नव्बाबी घराने मे बड़ा मान था और इनके नौ बेटो मे से तीन को 'राजा' की और एक को 'रायबहादुर' की पदवी मिली थी।
उस समय सेठ अमीचंद के विशाल राजप्रासाद की ड्योढ़ी पर बड़े बड़े अगरेज़ सौदागर आशा लगाए टहला करते थे। इन्हीं सेठ साहब की पूर्ण सहायता से बंगाले मे कोठियां खोल खोल, अपना वाणिज्य फैला सके थे, इन्हीकी कृपा से अग्रेज़ गांव गाव दादनी देकर रुई और कपड़े की अदला-बदली कर बहुत कुछ पैसा कमाते थे और इन्हींकी दया से समय समय पर, जब जब गाढ़ पड़ता, अंग्रेज़ उससे निस्तार पाते थे। सच तो यो है कि यदि अभी चंद अंग्रेज़ो की भरपूर सहायता न करते तो अंग्रेज़ो के लिये इस अनजान देश में इस तरह पैर फैलाने का इतना सुभीता मिलता कि नहीं, इसमे सन्देह होता है।
किन्तु हा! उस समय के स्वार्थी अगरेजो ने अपने सहायक शुभचिन्तक, उपकारी और मित्र अमीचद की कुछ भी कदर न की, बरन उलटा उनके ऊपर वह भयानक अत्याचार किया कि जो कभी इतिहास के पन्ने से पुछनेवाला नहीं है। बात यह है कि जब इस अनजान मे अंग्रेज़ों की कई अच्छे अच्छे लोगो से जान पहिचान होगई तब वेअमीचद की उपेक्षा करने लगे और सिराजुद्दौला के दर्वार मे अमीचंद का आदर-सन्मान देख अग्रेज़ो ने उनपर से विश्वास हटा लिया। यद्यपि अमीचंद ने अंग्रेजों के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की थी; तथापि अंगरेजो ने उन पर अनेक अत्याचार किए थे।
सिराजुद्दौला के एक दूत का अंगरेजो ने भरपूर अनादर किया, जो सेठ अमीचंद के यहां आकर ठहरा हुआ था। फिर जब सिराजुद्दौला ने कलकत्ते पर चढ़ाई की तो इसका कारण अगरेज़ो ने अमीचंद को ही समझा और चट सेना भेजकर इन्हे कैद कर लिया; उस समय सारे नगर मे हाहाकार मच गया था। केवल इतनाही नहीं, बरन जब अमीचद के गुमास्ते हजारीमल्ल ख़जाने और