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मदनमोहन के अतिरिक्त और कोई न था और इन्हें वहां तक ले आने वाली स्त्री, वही थी, जिसके साथ लवंगलता की इसी कमरे में मुलाकात हुई थी।

जिस समय मदनमोहन और लवंगलता आपस मे मिले थे, उस समय वह स्त्री उस कमरे मे न थी। अस्तु, इसके बाद फिर क्या हुया, इसका हाल आगे लिखा जायगा।

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बारहवां परिच्छेद.
जैसे को तैसा।

"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।"

(गीता)

एक पहर से अधिक बीत गई है, लवगलता अपने कमरे मे टहल रही रौशनी भली भांति होरही है और खुशबू से सारा कमरा बसा हुआ है! आज लवगलता के मुखड़े से उत्कंठा. उढग, आशा, निराशा, भय, उत्साह, आग्रह, भातक आदि परस्पर-विरोधी भाव टपके पडते है, किन्तु इस बात पर वह बहुत जोर देरही है कि जिसमें चेहरे पर प्रसन्नता की झलक बराबर बनी रहे।

इतने ही मे एक लौडी ने नव्वाब सिराजुद्दौला के आने की उसे खबर दी और उस लौडी के कमरे से बाहर होते ही सिराजुद्दौला न कमरे के अन्दर पैर रक्खा।

उसे देखतेही लवंगलता ने मुस्कुराकरकहा,—"बंदगी अर्ज है!!!"

सिरा॰,—"बदगी बदगी, कहिए, मिजाज तो अच्छा है?"

लवग॰,—"मिजाज की एक ही कही आपने! भला मुझमे और मिजाज!!"

सिरा॰.—अक्खा! आज तो आप बेतरह सितम ढाह रही हैं!

लवगलताने इस पर केवल,—"जी हां"—कहकर एक आलमारी

[९] सु॰