ग्यारहवां परिच्छेद,
अँधेरी रात!
"साधयामि म्बकार्य वा शरीरं पातयाम्यहम्।"
(महाभारते)
अमावस्या की घोर अन्धकारमयी रजनी है हाथ से हाथ नहीं सूझता और मारा सलार मानो स्याही के समुद्र में डूबा हुआ है! यद्यपि अंधेरी रात में भी तारो का उजाला कुछ काम आता है, परन्तु हम अपने पाठकों को साथ लिये हुए जिस धनो झाड़ों में उपस्थित है,वहा पर अमावास्या की अंधेरी रात की तो बात ही क्या, दिन को भी इतना अँधेरा रहता है कि भगवान् भास्कर की प्रखर किरणें कठिनता से उसमे प्रवेश कर सकती है!
रात आधी से ऊपर पहुच चुकी है, ऐसे समय में हीराझील नामक प्रामाद के पिछवाडे-वाली धनी झाडी मे दस-बारह मनुष्य एक बट-वृक्ष के नीचे खड़े खड़े आपस मे धीरे धीरे कुछ सलाह कर रहे है! उन समो के चेहरे पर आवरण (नकाब) पडा हुआ है और सभी हर्वे हथियारो से लैस है! उनमें एक व्यक्ति के हाथ मे कमंद है, इससे जान पडता है कि ये लोग कमंद लगाकर हीगफील-प्रामाद के भीतर जाया चाहते है, किन्तु रुके हुए इसलिये है कि मानो किसीका आसरा देखते हो!
वे सब संध्या से ही इस झाडी मे छिपे बैठे है और अब रात आधी से ऊपर पहुंच चुकी है, इसलिये जान पडता है कि कदाचित ये लोग किसी की टोह लेने के लिये अथवा किसीके लिए आसरे में खड़े है।
एकाएक एक हलकी सीटी की आवाज सुनाई दी, जिसके सुनते ही उस व्यक्ति ने, जो कमद लिये हुए खड़ा था, हीराझील की ऊची दीवार पर कमद फेकी और उसके लगते ही उसके सहारे से एक स्त्री उतरती हुई दिखलाई दो थोड़ी देर मे वह स्त्री नीचे उतर आई और तब उसकी जाच के लिये उस व्यक्ति ने, जिसने