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[दसवां
लवङ्गलता


समय मिलने के विचार को छोड़ दिया और लौंडियों को आज्ञा दी कि,—"सुबह के पेश्तर कुमारी लवंगलता के कमरे के अन्दर कोई कदम न रक्खे, जब तक कि बह खुद किसी काम के वास्ते किसी लौडो को तलब न करे।"

सो, लवंगलता उस गोल कमरे में अकेली बैठी ई बहुत देर तक रोती रही। फिर उसने उठकर और दीये को बत्ती का पुल झाड़कर रौशनी तेज कर दी और हाथ में दीया टेकर एक जिरे से उस कमरे की तलाशी लेनी प्रारम्भ की। यो ते खंजित एक आलमारी में उपने एक छोटी सी कटार पाई, जिसे देखते ही उसने प्रसन्नता से उस कटार को उठाकर चूम लिया और उसे अपनी कबुली के अन्दर छिपाकर आप ही आप कहा,—"मां दुर्गे! तुम्हारे चरणों में कोटि कोटि प्रणाम है!!! बस, अब मुझे कुछ न चाहिए। पहिले तो मैं जहां तक होसकेगा, यहांले भागने का प्रयता कलंगी, पर यदि ऐसा न हो सका तो-भगवती दुर्गे! यही छुरी मेरे धर्म पचाने में सहायक होगी।" यो कहकर वह द ए को दीवट पर रखकर कमरे के दर्वाजे को खोजने लगो, पर जिस दर्वाजे से वह कमरे के अन्दर लाई गई थी, इस समय उसे उस दर्वाजे का भी निशान कहीं पर नहीं दिखलाई दिया' वह हैरान थी कि,-"दर्वाज़ा गया किधर!!!"

निदान, बहुत कुछ प्रयत्न करने पर भी जब उमने कहीं पर दरवाज़े का कोई निशान न पाया तो वह आकर मसनद पर बैठ गई। अभी उसे मसनद पर बैठे दस मिनट भी न बीते होंगे कि एक हलकी आवाज़ ने उसे चौंका दिया और उसने धूमकर क्या देखा कि.—मसनद के पीछेवाली दीवार के किली चोरदर्वाजे को खोलकर एक स्त्री उस गोल कमरे के भीतर घुमी और फिर उस दाज़े को भीतर से बन्द कर मसनद की ओर मुड़ी!"

लवंगलता मारे घबराहट के मसनद पर से उठ खड़ी हुई और उस स्त्री की ओर नज़र गड़ाकर देखने लगी जो उसीकी ओर धीरे धीरे आरही थी। वह स्त्री, जो अभी इस कमरे के अन्दर आई थी, एक साधारण मैली साड़ी पहिरे हुए थी; उसके शरीर में नख से सिख तक कोई गहना नहीं दिखलाई देता था, उसका चेहरापीला और झांवला पड़ गया था, और शरीर सूखकर कांटा सा यनगया था! यद्यपि किसी समय मे वह स्त्री सुन्दरी स्त्रियों की पक्ति मे बैठने