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परिच्छेद]
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आदर्शवाला।


 

दसवां परिच्छेद.
शठे शाठ्यम्।

"भव प्रसन्ना, तव पादपङ्कजे,
समुत्सृजे सुन्दरि! सर्वसम्पदः।"

(रावणवधे)

कुमारी लवंगलता हीराझील नामक प्रासाद के अन्तःपुरवर्ती एक सजे हुए गोल कमरे में हथेली पर गाल रक्खे हुई बैठी है। उसकी आंखों से चौधारे आंसू बह रहे हैं और रह रह कर वह ठंढ़ी सांसें लेरही है। आज ही लवंगलता पहर भर रात बीतते बीतते इस कमरे में लाई गई थी, किन्तु अब रात आधी के ऊपर पहुंच चुकी है और लवंगलता अकेली उस कमरे में बैठी हुई अपने ऊपर आनेवाली विपत्ति का ध्यान करके धीरज छोडकर रही है।

वह कमग बिल्कुल आफ्नूस की लकड़ी से बना हुआ था, और जब उसका दर्वाजा बद कर दिया जाता तो भीतरवाले को यह नहीं मालूम होता कि, 'दरवाजा कहां पर है, या उसका निशान कहां है!' वह कमरा बहुत ही सजा हुआ था और परम लपट सिराजुद्दौला का विलासभवन, जैसा होना चाहिए, वह भी वैसा ही था।

जिस समय लवंगलता इस कमरे के अन्दर दाखिल हुई और कई लौंडियां उसकी सेवा टहल के लिये आपहुंची, उसी समय उसने रास्ते की थकावट का बहाना करके सभोको उस कमरे से बाहर चले जाने के लिये कहा और यह भी कहा कि,—'सुबह के पहिले इस कमरे के अन्दर कोई न आवे और न मुझे कोई जगावे।' और सिराजुद्दौला से उसने यह कहला भेजा कि,—' इस वक्त मैं बहुत ही थकी हुई हूं, इसलिये नव्वाब साहब इस वक्त मुझे सोने दे, सुबह के वक्त मैं उनसे मुलाकात करूंगी।"

निदान, लवंगलता के इच्छानुसार सिराजुद्दौला ने उससे उसी