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परीच्छेद
५३
आदर्शवाला।


डॉकू यदि वास्तव में सिगजुद्दौला के हो भेजे हुए लोग होगे तो वे इसी जगली रास्ते ही से मुर्शिदाबाद जायगे। सो मैं उसी रास्ते से आगे बढ़ता गया और सध्या के उपरान्त एक घने जंगल में पहुंचा, तो वहां पर कुछ ऐसे निशान मैंने पाए, जो इस बात का सबूत देते थे कि अभी यहां पर कोई काफ़ला उतरा हुआ था और यहांसे इस ओर को गया है।

दिन भर की थकावट ने हमलोगों को आगे बढ़ने न दिया और मैंने उसी जगह रात काटनी चाही। बडे तड़के उठ और मामूली कामों से छुट्टी पाकर जब मैं वहाँसे आगे बढ़ा तो धीरे धीरे उन निशानों को देखकर मैं उधर ही आगे बढ़ने लगा, जिधर कुछ घोडे और गाड़ियों के जाने के निशान पाए जाने लगे। कुछ ही दूर मैं आगे गया हूंगा कि एकाएक इस कंगन पर, जो बीच रास्ते में गाडी के दोनो चक्कों के निशान के बीचोंबीच पड़ा था, मेरी दृष्टि पड़ी और चट मैंने घोड़े से उतरकर इसे उठा लिया। वह कंगन यही है और वह पुरजा भी यही है, जो इसके साथ इसी भांति उस समय भी इसमें लपेटा हुआ था।"

शेर सह की बातें सुनकर मदनमोहन ने उस पुरजे को कंगन से खोलकर पढ़ा, उसमे केवल यही लिखा था कि,—"यदि कोई योर इस पुर्जे को पावे तो उसे चाहिए कि वह मेरा उद्धार करे। मैं रमपुर के महाराज नरेन्द्र सिंह की छोटी बहन हूँ, मेरा नाम लबगलता है और मुझे दुराचारी सिराजुद्दौला के आदमी, जिनका मुखिया नज़ीरखा है, जबर्दस्ती पकड़कर उसके पास मुर्शिदाबाद लिए जाने है।"

यह पुर्जा सचमुच लवंगलता का ही लिखा हुआ था और वह कंगन भी उसीका था, उसे मदनमोहन ने पहचाना और पुर्जे के अक्षरों को भी चीन्हा।

फिर शेरसिह कहने लगे,—"मैंने इस पुर्जे को पढ़कर आगे पैर पढ़ाया और बराबर उन निशानो के सहारे मुर्शिदाबाद तक चला गया। खेद है, श्रीमान्। कि यदि उस रात को मैं जंगल मे न काटता तो निश्चय था कि मैं दूसरे ही दिन उन आततायियो से श्रीमती कुमारीजी को छुड़ा सकता, किन्तु खेद है कि मुझसे बड़ी ढील हुई।"

मदनमोहन ने ठडी सांस भरकर कहा,—"नहीं, शेरसिंहजी!